mirza ghalib hindi
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ग़ालिब
गालिब इश्क को जीते थे। वह इश्क का आखिरी छोर थे। उनकी नज्में और शेर ने सालों साल इश्क की तहजीब दुनिया को दी है। अगर हम यूं कहें कि इश्क गालिब से शुरू होता है तो यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं होगी। उनका हर शेर एक जिंदादिल आशिक की तरह इश्क की रस्मों को निभाता है। उनके कुछ ऐसे दमदार शेर हम आपकी नजर कर रहे हैं।
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकलेबहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों होहमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,दिल के खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा हैउनको देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक,वो समझते हैं के बीमार का हाल अच्छा है
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझेतेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना,कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होतातुम न आए तो क्या सहर न हुईहाँ मगर चैन से बसर न हुईमेरा नाला सुना ज़माने नेएक तुम हो जिसे ख़बर न हुईन था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या हैतुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या हैन शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदाकोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या हैये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसेवरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या हैचिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहनहमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या हैजला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगाकुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या हैरगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायलजब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या हैवो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या हैपियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चारये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या हैरही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भीतो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या हैबना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतरातावगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या हैये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैंकभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैंवो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैंनज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू कोये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैंतेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखेंहम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं
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