अकबर इलाहाबादी
तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ हैबला के पेच में आया हुआ हैमौत आई इश्क़ में तो हमें नींद आ गईनिकली बदन से जान तो काँटा निकल गयामज़हबी बहस मैंने की ही नहींफ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहींआह जो दिल से निकाली जाएगीक्या समझते हो कि ख़ाली जाएगीबस जान गया मैं तिरी पहचान यही हैतू दिल में तो आता है समझ में नहीं आतादुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूंबाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूंखींचो न कमानों को न तलवार निकालोजब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालोहंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली हैडाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की हैसीने से लगाएं तुम्हें अरमान यही हैजीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है
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